Chapter 13 कनुप्रिया
Chapter 13 कनुप्रिया
Textbook Questions and Answers
कृति-स्वाध्याय एवं उत्तर
आकलन
प्रश्न 1.
(अ) कृति पूर्ण कीजिए :
(a) कनुप्रिया की तन्मयता के गहरे क्षण सिर्फ – ………………………………………………
उत्तर :
कनुप्रिया की तन्मयता के गहरे क्षण सिर्फ –
- भावावेश थे।
- सुकोमल कल्पनाएँ थीं।
- रँगे हुए अर्थहीन शब्द थे।
- आकर्षक शब्द थे।
(b) कनुप्रिया के अनुसार यही युद्ध का सत्य स्वरूप है – ………………………………………………
उत्तर :
- टूटे रथ, जर्जर पताकाएँ।
- हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ।
- नभ को कँपाते हुए युद्ध घोष, क्रंदन-स्वर।
- भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई अकल्पनीय, अमानुषिक घटनाएँ।
प्रश्न 2.
कनुप्रिया के लिए वे अर्थहीन शब्द जो गली-गली सुनाई देते हैं – ………………………………………………
उत्तर :
कनुप्रिया के लिए वे अर्थहीन शब्द जो गली-गली सुनाई देते हैं – कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व।
(आ) कारण लिखिए :
(a) कनुप्रिया के मन में मोह उत्पन्न हो गया है।
उत्तर :
कनुप्रिया के मन में मोह उत्पन्न हो गया है – (कनुप्रिया कल्पना करती है कि वह अर्जुन की जगह है।) क्योंकि कनु के द्वारा समझाया जाना उसे बहुत अच्छा लगता है।
(b) आम की डाल सदा-सदा के लिए काट दी जाएगी।
उत्तर :
आम्रवृक्ष की डाल सदा-सदा के लिए काट दी जाएगी – क्योंकि कृष्ण के सेनापतियों के वायुवेग से दौड़ने वाले रथों की ऊँची-ऊँची गगनचुंबी ध्वजाओं में यह नीची डाल अटकती हैं।
अभिव्यक्ति
प्रश्न 3.
(अ) ‘व्यक्ति को कर्मप्रधान होना चाहिए’, इस विषय पर अपना मत लिखिए।
उत्तर :
संसार में दो तरह के लोग होते हैं। एक कर्म करने वाले लोग और दूसरे भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले लोग। बड़े-बड़े महापुरुष, वैज्ञानिक, उद्योगपति, शिक्षाविद, देश के कर्णधार तथा बड़े-बड़े अधिकारी अपने कार्यों के बल पर ही महान कहलाए। कर्म करने वाले व्यक्ति ही अपने परिश्रम के फल की उम्मीद कर सकते हैं। हाथ पर हाथ रखकर भगवान के भरोसे बैठे रहने वालों का कोई काम पूरा नहीं होता।
निष्क्रिय बैठे रहने वाले लोग भूल जाते हैं कि भाग्य भी संचित कर्मों का फल ही होता है। किसान को अपने खेत में काम करने के बाद ही अन्न की प्राप्ति होती है। व्यापारी को बौद्धिक श्रम करने के बाद ही व्यवसाय में लाभ होता है। कहा भी गया है कि ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करे सो तस फल चाखा।’ इस प्रकार कर्म सफलता की ओर ले जाने वाला मार्ग है।
(आ) ‘वृक्ष की उपयोगिता’, इस विषय पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
वृक्ष मनुष्यों के पुराने साथी रहे हैं। प्राचीन काल में जब मनुष्य जंगलों में रहा करता था, तब वह अपनी सुरक्षा के लिए पेड़ों पर अपना घर बनाता था। पेड़ों से प्राप्त फल-फूल और जड़ों पर उसका जीवन आधारित था। पेड़ों की छाया धूप और वर्षा से उसकी मदद करती है। पेड़ों की हरियाली मनुष्य का मन प्रसन्न करती है। अब भी मनुष्य जहाँ रहता है, अपने आसपास फलदार और छायादार वृक्ष लगाता है।
वृक्ष मनुष्य के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। अनेक औषधीय वृक्षों से मनुष्यों को औषधियाँ मिलती हैं। वृक्ष वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिससे हमें साँस लेने के लिए शुद्ध वायु मिलती है। पेड़ों का सबसे बड़ा फायदा वर्षा कराने में होता है। जहाँ पेड़ों की बहुतायत होती है, वहाँ अच्छी वर्षा होती है। पेड़ों से ही फर्नीचर बनाने वाली तथा इमारती लकड़ियाँ मिलती हैं। इस तरह पेड़ हमारे लिए हर दृष्टि से उपयोगी होते हैं।
पाठ पर आधारित लघूत्तरी प्रश्न
प्रश्न 4.
(अ) ‘कवि ने राधा के माध्यम से आधुनिक मानव की व्यथा को शब्दबद्ध किया है, इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘कनुप्रिया’ काव्य में राधा अपने प्रियतम कृष्ण के ‘महाभारत’ युद्ध के महानायक के रूप में अपने से दूर चले जाने से व्यथित है। वह इस बात को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएँ करती है। कभी अपनी व्यथा व्यक्त करती है, तो कभी अपने प्रिय की उपलब्धि पर गर्व करके संतोष कर लेती है।
यह व्यथा केवल राधा की ही नहीं है। उन परिवारों के मातापिता की भी है, जिनके बेटे अपने परिवारों के साथ नौकरी व्यवसाय के सिलसिले में अपनी गृहस्थी के प्रति अपना दायित्व निभाने के लिए अपने माता-पिता से दूर रहते हैं। उनसे विछोह की व्यथा उन्हें भोगनी पड़ती है। भोले माता-पिता को लाख माथापच्ची करने पर भी समझ में यह नहीं आता कि सालों-साल तक उनके बेटे माता-पिता को आखिर दर्शन क्यों नहीं देते हैं।
पर वहीं उनको यह संतोष और गर्व भी होता है कि उनका बेटा वहाँ बड़े पद पर है, जो उसे उनके साथ रहने पर नसीब नहीं होता। इसी तरह किसी एहसान फरामोश के प्रति एहसान करने वाले व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं में भी राधा के माध्यम से आधुनिक मानव की व्यथा व्यक्त होती है।
(आ) राधा की दृष्टि से जीवन की सार्थकता बताइए।
उत्तर :
राधा के लिए जीवन में प्यार सर्वोपरि है। वह वैरभाव अथवा युद्ध को निरर्थक मानती है। कृष्ण के प्रति राधा का प्यार निश्छल और निर्मल है। राधा ने सहज जीवन जीया है और उसने चरम तन्मयता के क्षणों में डूबकर जीवन की सार्थकता पाई है। अतः वह जीवन की समस्त घटनाओं और व्यक्तियों को केवल प्यार की कसौटी पर ही कसती है। वह तन्मयता के क्षणों में अपने सखा कृष्ण की सभी लीलाओं का अनुमान करती है।
वह केवल प्यार को सार्थक तथा अन्य सभी बातों को निरर्थक मानती है। महाभारत के युद्ध के महानायक कृष्ण को संबोधित करते हुए वह कहती है कि मैं तो तुम्हारी वही बावरी सखी हूँ, तुम्हारी मित्र हूँ। मैंने तुमसे सदा स्नेह ही पाया है और मैं स्नेह की ही भाषा समझती हूँ।
राधा कृष्ण के कर्म, स्वधर्म, निर्णय तथा दायित्व जैसे शब्दों को । सुनकर कुछ नहीं समझ पाती। वह राह में रुक कर कृष्ण के अधरों की कल्पना करती है… जिन अधरों से उन्होंने प्रणय के शब्द पहली बार उससे कहे थे। उसे इन शब्दों में केवल अपना ही राधन्… राधन्… राधन्… नाम सुनाई देता है।
इस प्रकार राधा की दृष्टि से जीवन की सार्थकता प्रेम की पराकाष्ठा में है। उसके लिए इसे त्याग कर किसी अन्य का अवलंबन करना नितांत निरर्थक है।
रसास्वादन
प्रश्न 5.
‘कनुप्रिया’ काव्य का रसास्वादन कीजिए।
उत्तर :
(1) रचना का शीर्षक : कनुप्रिया। (विशेष अध्ययन के लिए)
(2) रचनाकार : डॉ. धर्मवीर भारती।
(3) कविता की केंद्रीय कल्पना : इस कविता में राधा और कृष्ण के तन्मयता के क्षणों के परिप्रेक्ष्य में कृष्ण को महाभारत युद्ध के महानायक के रूप में तौला गया है। राधा कृष्ण के वर्तमान रूप से चकित है। वह उनके नायकत्व रूप से अपरिचित है। उसे तो कृष्ण अपनी तन्मयता के क्षणों में केवल प्रणय की बातें करते दिखाई देते हैं।
(4) रस-अलंकार :
(5) प्रतीक विधान : राधा कनु को संबोधित करते हुए कहती है कि मेरे प्रेम को तुमने साध्य न मानकर साधन माना है। इस लीला क्षेत्र से युद्ध क्षेत्र तक की दूरी तटा करने के लिए तुमने मुझे ही सेतु बना दिया। यहाँ लीला क्षेत्र और युद्ध क्षेत्र को जोड़ने के लिए सेतु जैसे प्रतीक का प्रयोग किया गया है।
(6) कल्पना : प्रस्तुत काव्य-रचना में राधा और कृष्ण के प्रेम
और महाभारत के युद्ध में कृष्ण की भूमिका को अवचेतन मन वाली राधा के दृष्टिकोण से चित्रित किया गया है।
(7) पसंद की पंक्तियाँ तथा प्रभाव : दुख क्यों करती है पगली, क्या हुआ जो/कनु के वर्तमान अपने/तेरे उन तन्मय क्षणों की कथा से/ अनभिज्ञ हैं/उदास क्यों होती है नासमझ/कि इस भीड़भाड़ में/ है तू और तेरा प्यार नितांत अपरिवर्तित/छूट गए हैं। गर्व कर बावरी/कौन है जिसके महान प्रिय की/अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हों? इन पंक्तियों में राधा को अवचेतन मन वाली राधा सांत्वना है देती है।
(8) कविता पसंद आने का कारण : कवि ने इन पंक्तियों में राधा के अवचेतन मन में बैठी राधा के द्वारा चेतनावस्था में स्थित राधा को यह सांत्वना दिलाई है कि यदि कृष्ण युद्ध की हड़बड़ाहट में तुमसे और तुम्हारे प्यार से अपरिचित होकर तुमसे दूर चले गए हैं तो तुम्हें उदास नहीं होना चाहिए।
तुम्हें तो इस बात पर गर्व होना चाहिए। क्योंकि किसके महान है प्रेमी के पास अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हैं। केवल तुम्हारे प्रेमी के पास ही न।
कृतिपत्रिका के प्रश्न 3 (अ) के लिए
पद्यांश क्र. 1
प्रश्न. निम्नलिखितपद्यांशपढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए :
कृति 1 : (आकलन)
प्रश्न 1.
आकृति पूर्ण कीजिए :
उत्तर :
प्रश्न 2.
उत्तर लिखिए :
ऐसा है राधा का सेतु जिस्म –
(1) …………………………………….
(2) …………………………………….
(3) …………………………………….
(4) …………………………………….
उत्तर :
ऐसा है राधा का सेतु जिस्म –
(1) सोने के पतले गुंथे तारों वाले पुल-सा
(2) निर्जन
(3) निरर्थक
(4) काँपता-सा।
कृति 2 : (आकलन)
प्रश्न 1.
उत्तर : लिखिए :
(1) पद्यांश में प्रयुक्त एक सुंदर वृक्ष का नाम – …………………………………….
(2) सैनिकों की गणना करने के काम आने वाला शब्द – …………………………………….
(3) इन्हें पथ से अलग हटकर खड़ी होने की सलाह – …………………………………….
(4) आकाश ऐसा था – …………………………………….
उत्तर :
(1) कदंब।
(2) अक्षौहिणी।
(3) राधा को।
(4) धूल भरा।
प्रश्न 2.
आकृति पूर्ण कीजिए :
उत्तर :
पद्यांश क्र. 2
प्रश्न. निम्नलिखितपद्यांश पढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए :
कृति 1 : (आकलन)
प्रश्न 1.
कारण लिखिए :
आज राधा उस पथ से दूर हट जाए – ……………………………………………
उत्तर :
आज राधा उस पथ से दूर हट जाए – क्योंकि आज उस पथ से द्वारिका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं।
प्रश्न 2.
आकृति पूर्ण कीजिए:
उत्तर :
कृति 2 : (आकलन)
प्रश्न 1.
उत्तर लिखिए :
(1) कनु सबसे ज्यादा इसका है – …………………………………………
(2) राधा इसके रोम-रोम से परिचित है – …………………………………………
(3) अगणित सैनिक इसके हैं – …………………………………………
(4) राधा को ये बिलकुल नहीं पहचानते – …………………………………………
उत्तर :
(1) राधा का।
(2) कनु (कृष्ण) के।
(3) कनु (कृष्ण) के।
(4) कनु (कृष्ण) के सैनिक।
कृति 3 : (अभिव्यक्ति)
प्रश्न 1.
‘धार्मिक दृष्टि से पवित्र माने जाने वाले वृक्ष’ विषय पर 40 से 50 शब्दों में अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
यों तो हर प्रकार के वृक्ष मनुष्य के काम आते हैं, पर कुछ वृक्ष ऐसे होते है, जिन्हें धार्मिक दृष्टि से पवित्र माना जाता है। उनमें से कुछ वृक्षों की पूजा-अर्चना की जाती है और कुछ वृक्षों की पत्तियों का उपयोग धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता है। पीपल और नीम के वृक्षों में क्रमशः भगवान शंकर और देवी जी का बास मानकर इन वृक्षों में श्रद्धालु जल छोड़ते हैं। वट पूर्णिमा को सुहागन स्त्रियाँ पति के दीर्घायु के लिए वट वृक्ष की पूजा करती हैं।
अशोक की पत्तियों का शुभ अवसर पर तोरण बनाकर मंडपों आदि को सजाया जाता है। आम का वृक्ष तो शुभ माना ही जाता है। पूजा में कलश पर रखने के लिए आम की पल्लव अनिवार्य होती है। आम की पत्तियाँ तोरण बनाने के काम में आती हैं। इसके अलावा आम की लकड़ी हवन के काम भी आती है।
छोटे पौधों में तुलसी पवित्र मानी जाती है। पूजा में तुलसी- पत्र और पान की पत्तियों का उपयोग भी आवश्यक होता है।
इसी तरह नारियल के वृक्ष को भी पवित्र माना जाता है। नारियल और सुपारी के बिना कोई महत्त्वपूर्ण धार्मिक कार्य संपन्न नहीं होता। इस तरह धार्मिक दृष्टि से पवित्र माने जाने वाले वृक्षों का बहुत महत्त्व है।
पद्यांश क्र. 3
प्रश्न. निम्नलिखित पद्यांशपढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए :
कृति 1 : (आकलन)
प्रश्न 1.
उत्तर : लिखिए :
(1) कनुप्रिया (राधा) को उदास नहीं होना चाहिए – ……………………………………..
(2) कनुप्रिया (राधा) को गर्व करना चाहिए – ……………………………………..
उत्तर :
(1) कनुप्रिया (राधा) को उदास नहीं होना चाहिए – कि भीड़भाड़ में वह और उसका प्यार नितांत अपरिचित छूट गए हैं।
(2) कनुप्रिया (राधा) को गर्व करना चाहिए – कि उसके प्रिय के अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हैं।
कृति 2 : (आकलन)
प्रश्न 2.
कनु (कृष्ण) के अनुसार युद्ध सत्य –
उत्तर :
कनु (कृष्ण) के अनुसार युद्ध सत्य –
- पाप-पुण्य
- धर्म-अधर्म
- न्याय-दंड
- क्षमाशीलता।
कृति 3 : (अभिव्यक्ति)
प्रश्न 1.
‘प्राचीन काल एवं आधुनिक काल की सेनाओं के बारे में 40 से 50 शब्दों में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर :
प्राचीन काल में आज की तरह तकनीकी विकास नहीं हुआ था। इसलिए सेनाओं के पास आज की तरह द्रुत गति से मारक और विनाशक अस्त्र-शस्त्र नहीं थे। प्राचीन काल की सेनाएँ पैदल सैनिकों पर आधारित होती थीं। उनमें पैदल सेना, अश्व सेना, गज सेना आदि प्रमुख थीं। राजा और सामंत लड़ाई के समय रथों का प्रयोग करते थे। सेनाओं के पास धनुष-बाण, भाले, तलवारें, कटार-बी तथा गदा जैसे हथियार होते थे।
लड़ाइयाँ अधिकतर आमने-सामने होती थीं। इसलिए सैनिकों की संख्या बहुत अधिक होती थी। आज की सेनाएँ आधुनिक हथियारों से लैस होती हैं। ये थल सेना, जल सेना तथा वायु सेना में बँटी होती हैं। इनके पास अत्यधिक तेज गति से मार करने वाले हथियार होते हैं। थल सेना के पास आधुनिक राइफलें, विकसित तकनीक वाले दूर-दूर तक मार करने वाले टैंक, गोला-बारूद, हजारों मील दूर तक मार करने वाली मिसाइलें होती हैं।
वायु सेना के पास आवाज की गति से तेज चलने वाले फाइटर विमान, तरह-तरह के संहारक बम तथा जल सेना के पास अनेक युद्धक जहाजें तथा पनडुब्बियाँ होती हैं, जो क्षण भर में भारी विनाश कर सकती हैं। इस तरह प्राचीन काल की सेनाओं और आधुनिक काल की सेनाओं में जमीन-आसमान का अंतर हैं।
पढ्यांश क्र. 4
प्रश्न. निम्नलिखित पद्यांश पढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए :
कृति 1 : (आकलन)
प्रश्न 1.
उत्तर :
कृति 2 : (आकलन)
प्रश्न 1.
कृति पूर्ण कीजिए :
(1) कनुप्रिया कनु से इनकी तरह सब कुछ समझना चाहती है सार्थकता – ………………………………
(2) कनुप्रिया की तन्मयता के गहरे क्षण – ………………………………
(3) कनुप्रिया के लिए वे सारे शब्द तब अर्थहीन हैं – ………………………………
उत्तर :
(1) कनुप्रिया कनु से इनकी तरह सब कुछ समझना चाहती है सार्थकता – अर्जुन की तरह।
(2) कनुप्रिया की तन्मयता के गहरे क्षण – रँगे हुए अर्थहीन आकर्षक शब्द।
(3) कनुप्रिया के लिए वे सारे शब्द तब अर्थहीन हैं – जब वे कनु के काँपते अधरों से नहीं निकलते।
कृति 3 : (अभिव्यक्ति)
प्रश्न 1.
‘युद्ध विनाश एवं शांति विकास का कारण होता है’ इस विषय पर 40 से 50 शब्दों में अपने विचार लिखिए।
उत्तर :
युद्ध कोई नहीं चाहता, क्योंकि युद्ध का परिणाम बहुत भयानक होता है। लेकिन कभी-कभी स्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं कि न चाहकर भी युद्ध करना पड़ता है। युद्ध में दोनों पक्षों की भारी क्षति होती है। अनेक सैनिक मारे जाते हैं, जिनके कारण अनेक और अस्त्र-शस्त्रों की व्यवस्था करने में भारी आर्थिक क्षति होती है। विकास कार्यों में लगने वाला धन युद्ध के खर्च में लग जाता है। इससे देश का आर्थिक ढाँचा चरमरा जाता है।
युद्ध का परिणाम आने वाली पीढ़ियों को वर्षों तक भोगना पड़ता है। किसी देश के लिए शांति का समय विकास का समय होता है। इससे युद्ध पर होने वाले अनावश्यक खर्च से बचत होती है। देश का धन विकास कार्यों पर खर्च होता है। इसका लाभ देश की जनता को मिलता है।
इससे शासक वर्ग और शासित जनता दोनों खुशहाल होते हैं। रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं और लोग संपन्न बनते हैं। युद्ध और शांति एक-दूसरे के विरोधी हैं। इस तरह युद्ध से विनाश और शांति से विकास होता है।
पद्यांश क्र. 5
प्रश्न. निम्नलिखित पद्यांश पढ़कर दी गई सूचनाओं के अनुसार कृतियाँ कीजिए :
कृति 1 : (आकलन)
प्रश्न 1.
कारण लिखिए :
कन का तेज कनुप्रिया के मूर्च्छित संवेदन को धधका रहा है – ………………………………………..
उत्तर :
कनु का तेज कनुप्रिया के मूर्च्छित संवेदन को धधका रहा है – क्योंकि वह कनु को अपलक देख रही है और उनके हर शब्द को वह अँजुरी बनाकर बूंद-बूंद उन्हें पी रही है।
प्रश्न 2.
आकृति पूर्ण कीजिए :
उत्तर :
कृति 2 : (आकलन)
प्रश्न 1.
उत्तर लिखिए :
(1) कनु के फूलों की तरह झरते हुए शब्द कनुप्रिया को इस तरह सुनाई पड़ते हैं – ………………………………………..
(2) कनुप्रिया के लिए कनु के सभी शब्दों के केवल एक अर्थ – ………………………………………..
उत्तर :
(1) राधन्, राधन्, राधन्।
(2) मैं … मैं … मैं …।
प्रश्न 2.
कृति पूर्ण कीजिए : जब कनु राधा को समझाते हैं, तो उसे यह लगता है –
(1) ………………………………………..
(2) ………………………………………..
(3) ………………………………………..
(4) ………………………………………..
उत्तर :
(1) जैसे युद्ध रुक गया है।
(2) जैसे सेनाएँ स्तब्ध खड़ी रह गई हैं।
(3) जैसे इतिहास की गति रुक गई है।
(4) समझाया जाना उसे (राधा को) अच्छा लगता है।
रसास्वादन अर्थ के आधार पर
प्रश्न 1.
‘कनुप्रिया में लेखक ने राधा के मन की व्यथा का सुंदर चित्रण किया है’ इस कथन के आधार पर कविता का रसास्वादन कीजिए।
उत्तर :
डॉ. धर्मवीर भारती लिखित काव्य ‘कनुप्रिया’ आधुनिक मूल्यों वाला नया काव्य है। महाभारत की पृष्ठभूमि पर लिखी गई इस कृति में कनुप्रिया यानी राधा के मानसिक संघर्ष के प्रसंग व्यक्त हुए हैं। कवि ने राधा के माध्यम से कृष्ण को संबोधित करते हुए उनसे कई प्रश्न पुछवाए और उनके जवाब भी राधा से दिलवाए हैं। इस काव्य में कई प्रसंग बहुत सुंदर ढंग से पिरोए गए हैं।
अवचेतन मन में बैठी राधा चेतनास्थित राधा से कहती है कि ‘वह आम्र की डाल जिसका सहारा लेकर कृष्ण वंशी बजाया करते थे अब काट डाली जाएगी, क्योंकि वह कृष्ण के सेनापतियों के रथों की ध्वजाओं में अटकती है।’ या ‘चारों दिशाओं से, उत्तर को उड़-उड़ कर जाते हुए, गिद्धों को क्या तुम बुलाते हो (जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को)’। इन पंक्तियों में कवि ने राधा के अपने मन की व्यथा व्यक्त की है।
कवि ने नई कविता के मुक्त छंदों में सीधे-सादे सरल शब्दों में राधा के मन की बात कही है। प्रस्तुत कविता में प्रसाद गुण की प्रमुखता है और समूचे काव्य में अतुकांत छंदों का प्रयोग किया गया है, जो नई कविता की अपनी विशेषता है।
कनुप्रिया Summary in Hindi
कनुप्रिया कवि का परिचय
कनुप्रिया कवि का नाम :
डॉ. धर्मवीर भारती। (जन्म 25 दिसंबर, 1926; निधन 4 सितंबर, 1997.)
कनुप्रिया प्रमुख कृतियाँ :
गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा (उपन्यास); सात गीत वर्ष, ठंडा लोहा, कनुप्रिया (कविता संग्रह), मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग, ऑस्कर वाइल्ड की कहानियाँ, बंद गली का आखिरी मकान (कहानी संग्रह), नदी प्यासी थी (एकांकी), अंधा युग, सृष्टि का आखिरी आदमी (काव्य नाटक), सिद्ध साहित्य (साहित्यिक समीक्षा), एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य, कहानी अकहानी, पश्यंती (निबंध) आदि।
कनुप्रिया विशेषता :
आधुनिक काल के रचनाकारों में डॉ. धर्मवीर भारती मूर्धन्य साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ‘कनुप्रिया’ आपकी अनोखी और अद्भुत कृति है। डॉ. धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य’ पर शोध प्रबंध, जिसका हिंदी साहित्य अनुसंधान के इतिहास में विशेष स्थान है। टाइम्स ऑफ इंडिया पब्लिकेशन के प्रकाशन ‘धर्मयुग’ के वर्षों तक संपादक। आपको पद्मश्री, व्यास सम्मान तथा कई अन्य राष्ट्रीय पुरस्कारों से अलंकृत किया गया है।
कनुप्रिया विधा :
पद्य (नई कविता)।
कनुप्रिया विषय प्रवेश :
‘कनुप्रिया’ राधा और कृष्ण के प्रेम और महाभारत की कथा से संबंधित कृति है। कृति में बताया गया है कि प्रेम सर्वोपरि है और युद्ध का अवलंब करना निरर्थक है। राधा कृष्ण से महाभारत युद्ध को लेकर कई प्रश्न पूछती है। महाभारत युद्ध में हुई जीत-हार, कृष्ण की भूमिका, युद्ध का उद्देश्य, युद्ध की भयावहता, सैन्य संहार आदि बातों से संबंधित राधा का कृष्ण से हुआ तर्कसंगत संवाद इस काव्य में चार चाँद लगा देता है।
कनुप्रिया कविता का सरल अर्थ
सेतु : मैं
राधा कहती है, “हे कनु (कृष्ण) नीचे की घाटी से ऊपर के शिखरों पर जिसे जाना था, वह चला गया। (लेकिन बलि मेरी ही चढ़ी) मेरे ही सिर पर पैर रख मेरी बाहों से इतिहास तुम्हें ले गया।” हे कनु, इस लीला क्षेत्र से उठकर युद्ध क्षेत्र तक की अलंघ्य दूरी तय करने के लिए क्या तुमने मुझे ही सेतु बना दिया?
अब इन शिखरों और मृत्यु-घाटियों के बीच बने इस सोने के पतले और गुंथे हुए तारों से बने पुल की तरह मेरा यह सेतु-रूपी शरीर काँपता हुआ निर्जन और निरर्थक रह गया है। जिसे जाना था वह चला गया।
अमंगल छाया
अवचेतन मन में बैठी हुई राधा अपने चेतन मन वाली राधा को संबोधित करते हुए कहती है, हे राधा! यमुना के घाट से ऊपर आते समय कदंब के पेड़ के नीचे खड़े कनु को देवता समझकर प्रणाम करने के लिए तुम जिस मार्ग से लौटती थी, हे बावरी! आज तुम उस मार्ग से होकर मत लौटना।
ये उजड़े हुए कुंज, रौंदी हुई लताएँ, आकाश में छाई हुई धूल, क्या तुम्हें यह आभास नहीं दे रहे हैं कि आज उस मार्ग से कृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ युद्ध में भाग लेने जा रही हैं!
हे बावरी! आज तू उस मार्ग से दूर हटकर खड़ी हो जा। लताकुंज की ओट में अपने घायल प्यार को छुपा ले। क्योंकि आज इस गाँव से द्वारिका की उन्मत्त सेनाएँ युद्ध के लिए जा रही हैं।
हे राधा! मैं मानती हूँ कि कन्हैया सबसे अधिक तुम्हारा अपना है। मैं मानती हूँ कि तुम कृष्ण के रोम-रोम से परिचित हो। मैं मानती हूँ कि ये असंख्य सैनिक तुम्हारे उसके (कन्हैया के) हैं, पर तू यह जान ले कि ये सैनिक तुझे बिलकुल नहीं पहचानते हैं। इसलिए हे बावरी! इस मार्ग से दूर हट जा।
यह आम की डाल तुम्हारे कन्हैया की अत्यंत प्रिय थी। जब तक तू (यहाँ) नहीं आती थी, सारी शाम कन्हैया इस डाल पर टिककर बंशी में तेरा नाम भर-भरकर तुम्हें टेरा करता था।
आज यह आम की डाल सदा-सदा के लिए काट दी जाएगी। इसका कारण यह है कि कृष्ण के सेनापतियों के तेज गति वाले रथों की ऊँची-ऊँची पताकाओं में यह डाल उलझती है… अटकती है। इतना ही नहीं, रास्ते के किनारे यह छायादार पवित्र अशोक का पेड़ भी आज टुकड़े-टुकड़े कर दिया जा सकता है। अगर इस गाँव के लोग सेनाओं के स्वागत में (इस वृक्ष की पत्तियों के) तोरण नहीं बनाएँगे, तो शायद यह गाँव उजाड़ दिया जाएगा।
अरे पगली! दुखी क्यों होती है। क्या हुआ, यदि आज के कृष्ण तुम्हारे साथ पहले बिताए हुए तन्मयता के गहरे क्षणों को भूल चुक हैं।
हे राधे! तू उदास क्यों होती है कि इस भीड़भाड़ में तुम्हें और तुम्हारे प्यार को पहचानने वाला कोई नहीं है।
राधे, तुम्हें तो गर्व होना चाहिए। क्योंकि किसके महान प्रेमी के पास अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ हैं। (केवल तुम्हारे ही प्रेमी के पास न!)
एक प्रश्न
राधा अपने कनु (कृष्ण) को संबोधित करते हुए कहती है कि मेरे महान कनु, मान लो… क्षणभर के लिए मैं इस बात को स्वीकार कर लूँ कि मेरे वे तन्मयता वाले सारे गहरे क्षण केवल मेरे भावावेश थे… मेरी कोमल कल्पनाएँ थीं… केवल बनावटी, निरर्थक और आकर्षक शब्द थे।
मान लो, एक क्षण के लिए मैं यह स्वीकार कर लूँ कि तुम्हारा महाभारत का यह युद्ध पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, न्याय-दंड तथा क्षमा-शील वाला है। इसलिए इस युद्ध का होना इस युग की सच्चाई है। फिर भी कनु, मैं क्या करूँ? मैं तो वही तुम्हारी बावरी मित्र हूँ।
मुझे तो केवल उतना ही ज्ञान मिला है, जितना तुमने मुझे दिया है। तुम्हारे दिए हुए समस्त ज्ञान को समेट कर भी मैं तुम्हारे इतिहास, तुम्हारे उदात्त और महान कार्यों को समझ नहीं पाई हूँ।
कनु, अपनी यमुना नदी, जिसमें मैं अपने आप को घंटों निहारा करती थी, अब उसमें हथियारों से लदी हुई असंख्य नौकाएँ रोज-रोज न जाने कहाँ जाती हैं? नदी की धारा में बह-बह कर आने वाले टूटे हुए रथ और फटी हुई पताकाएँ किसकी हैं?
हे कनु, युद्ध क्षेत्र से हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ, गगनभेदी युद्ध घोष, विलाप के स्वर और युद्ध क्षेत्र से भागे हुए सैनिकों के मुँह से सुनी हुई युद्ध की अकल्पनीय और अमानवीय घटनाएँ, … क्या यह सब सार्थक है? गिद्ध जो चारों दिशाओं से उड़-उड़ कर उत्तर : दिशा की ओर जा रहे हैं, हे कनु, क्या इन्हें तुम बुलाते हो? (जैसे तुम भटकी हुई गायों को बुलाते थे।)
हे कनु, मैंने अब तक तुमसे जितनी समझ पाई है, उस समझ को बटोर कर भी मैं यह जान पाई हूँ कि और भी बहुत कुछ है तुम्हारे पास, जिसका कोई भी अर्थ मेरी समझ में नहीं आता।
हे कनु, जिस तरह तुमने युद्ध क्षेत्र में अर्जुन को युद्ध का प्रयोजन और उसकी सार्थकता समझाई थी, वैसे मुझे भी समझा दो कि सार्थकता क्या है? राधा कहती है कि मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण रंगे हुए, अर्थहीन परंतु आकर्षक शब्द थे, तो तुम्हारी दृष्टि से सार्थक क्या है? इस सार्थकता को तुम मुझे कैसे समझाओगे?
शब्द – अर्थहीन
…शब्द, शब्द, शब्द! राधा कहती है, मेरे लिए इन शब्दों की कोई कीमत नहीं है। हे कनु, जो शब्द मेरे पास बैठकर तुम्हारे काँपते हुए होठों से नहीं निकलते वे सभी शब्द मेरे लिए अर्थहीन हैं, निरर्थक हैं। वह कहती हैं कि कर्म, स्वधर्म, निर्णय और दायित्व जैसे शब्द मैंने भी गली-गली में सुने हैं। अर्जुन ने इन शब्दों में भले ही कुछ पाया हो, हे कनु! इन शब्दों को सुनकर मैं कुछ भी नहीं पायी। मैं रास्ते में ठहरकर तुम्हारे उन होठों की कल्पना करती हूँ । जिन होठों से तुमने प्रणय के शब्द पहली बार कहे होंगे।
मैं कल्पना करती हूँ कि अर्जुन की जगह मैं हूँ और मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है। मुझे कुछ पता नहीं है, युद्ध कौन-सा है और मैं किसके पक्ष में हूँ। मुझे कुछ पता नहीं कि समस्या क्या है और लड़ाई किस बात की है। लेकिन मेरे मन में मोह उत्पन्न हो गया है। क्योंकि तुम्हारा समझाना मुझे बहुत अच्छा लगता है। जब तुम मुझे समझा रहे हो तो सेनाएँ स्तब्ध खड़ी रह गई हैं और इतिहास की गति रुक गई है। और तुम मुझे समझा रहे हो।
तुम कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व जैसे जिन शब्दों को कहते हो, ये मेरे लिए बिलकुल अर्थहीन हैं। कनु, मैं इन सबसे हट करके एकटक तुम्हें देख रही हूँ। तुम्हारे प्रत्येक शब्द को अँजुरी बनाकर मैं बूंद-बूंद तुम्हें पी रही हूँ। तुम्हारा तेज, तुम्हारा व्यक्तित्व जैसे मेरे शरीर के एक-एक मूर्छित संवेदन को दहका रहा है। लगता है तुम्हारे जादू भरे होठों से शब्द रजनीगंधा के फूलों की तरह झर रहे हैं – एक के बाद एक।
कनु कनु, स्वधर्म, निर्णय और दायित्व आदि जो शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं, वे शब्द मुझ तक आते-आते बदल जाते हैं। मुझे ये शब्द राधन्, राधन्, राधन् के रूप में सुनाई देते हैं। तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले शब्द असंख्य हैं, उनकी गणना नहीं की जा सकती। पर मेरे लिए उनका अर्थ केवल एक ही है – मैं … मैं … केवल मैं। है फिर बताओ कनु, इन शब्दों से तुम मुझे इतिहास कैसे समझाओगे!