रचना गद्य आकलन

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रचना गद्य आकलन

अपठित अर्थात जो पहले से पढ़ा / पढ़ाया न गया हो ऐसा परिच्छेद परीक्षा में दिया जाता है। इसे पढ़कर इसका आशय समझना होता है। कोई शब्द परिचित न हो और अर्थ समझ में नहीं आ रहा हो तो उसके अर्थ को वाक्य के प्रसंगानुसार ग्रहण करना चाहिए और सब कुछ समझ में आ जाने पर प्रश्न बनाना आसान हो जाएगा।

महत्त्वपूर्ण : छात्रों से अपठित गद्यांश पर आकलन हेतु मात्र प्रश्न निर्माण अपेक्षित है और प्रश्न भी ऐसे बनाने हैं जिनके उत्तर एक वाक्य में हों। हो सके उतना गद्यांश के लिए शीर्षक के बारे में प्रश्न न पूछे। आगे कुछ उदाहरण दिए हैं –

प्रश्न 1.
निम्नलिखित गद्यांश पढ़कर पाँच ऐसे प्रश्न तैयार कीजिए जिनके उत्तर एक-एक वाक्य में हों।

पंडित जवाहरलाल नेहरूजी की अंतिम इच्छा यह थी कि मैं जब मरूँ तब मैं चाहूँगा कि मेरा दाह-संस्कार हो। अगर मैं विदेश में मरूँ तो मुझे वहीं जलाया जाए पर मेरी अस्थियाँ इलाहाबाद लाई जाएँ। मुठ्ठीभर भस्म इलाहबाद की गंगा में प्रवाहित करने की मेरी इच्छा है, किंतु उसके पीछे कुछ धार्मिक भावना नहीं है, क्योंकि गंगा हमारी सदियों से पुरानी सभ्यता और संस्कृति की प्रतीक रही है।

वह मुझे हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों और नदियों की याद दिलाती है, जिनमें मेरा लगाव और प्यार बहुत ज्यादा रहा है। गंगा मुझे शस्य-श्यामल फैले हुए मैदानों की याद दिलाती है, यहाँ मेरी जिंदगी और काम ढले हैं। गंगा में कहीं समुद्र जैसी विनाश की भी शक्ति मुझे लगती है और उसकी यह शक्ति मेरे लिए अतीत की प्रतीक व स्मृति है, जो वर्तमान में प्रवाहित है और भविष्य के महासमुद्र में आगे बढ़ते रहने की है।
उत्तर:

  1. मुठ्ठीभर भस्म का विसर्जन लेखक ने कहाँ करने के लिए कहा है?
  2. गंगा की कौन-सी शक्ति लेखक के लिए अतीत की प्रतीक व स्मृति है?
  3. लेखक की जिंदगी और काम कहाँ ढले हैं?
  4. पंडित जवाहरलाल नेहरू जी को गंगा नदी किसकी याद दिलाती है?
  5. विदेश में मरने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू जी क्या चाहते हैं?

प्रश्न 2.
निम्नलिखित गद्यांश पढ़कर पाँच ऐसे प्रश्न तैयार कीजिए जिनके उत्तर एक-एक वाक्य में हों।

वर्तमान शासन प्रणालियों में जनतंत्र से बढ़कर उत्तम कोई प्रणाली नहीं हैं, क्योंकि उसमें जनता को स्वयं यह अधिकार प्राप्त रहता है कि वह अपने प्रतिनिधियों को चुनकर विधान सभाओं और संसद में भेजें। ऐसे प्रत्यक्ष चुनाव में प्राय: वही व्यक्ति चुना जाता है, जिसका सार्वजनिक जीवन अच्छा हो और जो जनता की सेवा करता हो। इस प्रणाली में जनता को यह अधिकार है कि यदि वह किसी दल या किसी व्यक्ति के कार्यों से संतुष्ट नहीं है तो दूसरी बार उस दल या व्यक्ति को अपना मत न दें।

निर्वाचन में विरोधी दलों के भी कुछ व्यक्ति चुने जाते हैं, जो अपनी आलोचना से शासक दल के स्वेच्छाचार पर अंकुश रखते हैं। इस प्रकार देश की शासन प्रणाली में विरोधी दलों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।
उत्तर:

  1. जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर कहाँ भेजती है?
  2. चुनाव में कैसा व्यक्ति चुना जाता है?
  3. विरोधी दल अपनी आलोचना से क्या कर सकता है?
  4. जनतंत्र में जनता को किस बात का अधिकार होता है?
  5. सबसे उत्तम शासन प्रणाली कौन-सी है?

प्रश्न 3.
निम्नलिखित गद्यांश पढ़कर पाँच ऐसे प्रश्न तैयार कीजिए जिनके उत्तर एक-एक वाक्य में हों।

दान देने की परिपाटी प्राचीन काल से चली आ रही है। अन्नदान, गोदान, वस्त्रदान, स्वर्णदान, भूमिदान करना भारतीय अपना परम धर्म मानते हैं। धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, ऐसा माना जाता है। प्राचीन काल में विद्यादान को सर्वश्रेष्ठ दान माना जाता था। वर्तमान काल में कुछ नए प्रकार के दान प्रचलित हुए है – नेत्रदान, रक्तदान, किडनीदान । रक्त तो हर व्यक्ति के लिए जरूरी है। पचास वर्ष तक के निरोगी स्त्री-पुरुष रक्त दान कर सकते हैं। दुर्घटनाओं से परिपूर्ण वैज्ञानिक युग में रक्तदान, सर्वश्रेष्ठ दान माना जा रहा है। नेत्रदान करने से घबराना नहीं चाहिए क्योंकि मरणोपरांत ही आँखें निकालकर, अंधों को दी जाती हैं और वे देखने लगते हैं। बीमार के प्राण बचाने के लिए हम अपनी किडनी दान दे सकते हैं।
उत्तर :

  1. प्राचीन काल से लेकर अब तक कौन-कौन से दान प्रचलित हैं?
  2. किन लोगों को रक्तदान करना चाहिए?
  3. वैज्ञानिक युग में कौन-सा दान श्रेष्ठ है?
  4. दान करना भारतीय अपना परम धर्म क्यों मानते हैं?
  5. नेत्रदान करने से घबराने की जरूरत क्यों नहीं?

प्रश्न 4.
निम्नलिखित गद्यांश पढ़कर पाँच ऐसे प्रश्न तैयार कीजिए जिनके उत्तर एक-एक वाक्य में हों।

भारत में प्राचीन काल से दहेज प्रथा चली आ रही है। कन्या के माता-पिता अपनी क्षमता के अनुसार शादी के समय दहेज देते चले आए हैं। वर एवं कन्या के परिवारवालों में आपसी प्रेम था इसलिए वरवाले कन्यावालों से किसी प्रकार की माँग करने में संकोच करते थे।

परंतु पिछले 50 वर्षों से विवाह एक व्यापार बन गया है। इससे समाज दुखी है। लड़कीवाला लड़के की योग्यता के स्थान पर धन को ही सर्वस्व मानता है और वह बड़े अमीर परिवार में अपनी लड़की को देना चाहता है। लड़का लड़कियों को देखता है।

जिस लड़की के पास धन अधिक होता है, उसे चुन लेता है। उसकी योग्यता को नहीं देखता। आज लड़की के विवाह का मूल आधार धन बन गया है। जिस दिन लड़की का जन्म होता है, उसी दिन से माता-पिता को उसके विवाह की चिंता लग जाती है।

इस बुराई को दूर करने के लिए हमें मिलकर इस प्रथा का विरोध करना चाहिए। जो दहेज लेता है, उसके लिए ऐसा कानून बनना चाहिए कि दहेज लेनेवाले को चोरी, जुआ एवं हत्या आदि अपराध करनेवालों के समान देखा जाए और सामाजिक मंच पर उसे बेइज्जत किया जाए।

इस विषय पर मात्र बोलने एवं लिखने से अब काम नहीं चलेगा। हमें एक होकर इस प्रकार के विरोध में कदम बढ़ाने होंगे।

प्रश्न :
(1) भारत में प्राचीन काल में दहेज प्रथा का स्वरूप कैसा था?
(2) माता-पिता को लड़की के विवाह की चिंता कब से लग जाती है?
(3) आज लड़की के विवाह का मूल आधार क्या बन गया है?
(4) दहेज लेने वाले के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए?
(5) लड़की के विवाह का मूल आधार क्या बन गया है?

प्रश्न 5.
निम्नलिखित गद्यांश पढ़कर पाँच ऐसे प्रश्न तैयार कीजिए जिनके उत्तर एक-एक वाक्य में हों।

पवन पुत्र हनुमान, भीष्म पितामह, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद जैसे बाल ब्रह्मचारियों ने भारत-भूमि को पावन किया है। संसार के प्राचीन ग्रंथ वेदों में लिखा है: “ब्रह्मचारी मृत्यु को जीत लेते हैं।” ‘ब्रह्म’ शब्द के अर्थ हैं ‘परमेश्वर, विद्या और शरीर-रक्षण। ब्रह्मचर्य के पालन से शरीर स्वस्थ होता है।

जिसका शरीर स्वस्थ उसीका मन स्वस्थ, जिसका मन स्वस्थ उसकी स्मरण-शक्ति बहुत होती है। स्मरण-शक्ति से आकलन शक्ति बढ़ती है । विद्यार्थी जीवन में आकलनशक्ति का अपना विशेष महत्त्व है। ब्रह्मचर्य विद्यार्थी जीवन की कमियाँ पूरी करता है।

प्राचीन भारतीय साहित्य में ब्रह्मचर्य की महिमा लिखी है। इसका पालन करनेवाला विद्यार्थी निरोगी, बुद्धिमान, संपत्तिशाली, महान बनता है। ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है।

प्रश्न:
(1) कौन-कौन बाल ब्रह्मचारी थे?
(2) मृत्यु को कौन जीत सकते हैं?
(3) ‘ब्रह्म’ शब्द के कितने और कौन-कौन से अर्थ हैं?
(4) विद्यार्थी जीवन में किसका विशेष महत्त्व है?
(5) ब्रह्मचर्य पालन करने वाला विद्यार्थी कैसा होता है?

स्वाध्याय

निम्नलिखित गद्यांश पढ़कर पाँच ऐसे प्रश्न तैयार कीजिए जिनके उत्तर एक वाक्य में हों –

(1) हँसने का एक सामाजिक पक्ष भी होता है। हँसकर हम लोगों को अपने निकट ला सकते हैं और व्यंग्य उन्हें दूरस्थ बना देते हैं। जिसको भगाना हो उसकी थोड़ी देर हँसी खिल्ली उड़ाइए, वह तुरंत बोरिया-बिस्तर गोल कर पलायन करेगा। जितनी मुक्त हँसी होगी, उतना समीप व्यक्ति खींचेगा इसीलिए तो श्रोताओं की सहानुभूति अपनी ओर खींचने के लिए चतुर वक्ता अपना भाषण किसी रोचक कहानी या घटना से आरंभ करते हैं।

जनता यदि हँसी तो चंगुल में फँसी। सामाजिक मूल्यों और नियमों को मान्यता दिलाने और रूढ़ियों को निष्कासित करने में पुलिस या कानून सहायता नहीं करता, किन्तु वहाँ हास्य का चाबुक अचूक बैठता है। हास्य के कोड़े, उपहास-डंक और व्यंग्य-बाण मारकर आदमी को रास्ते पर लाया जा सकता है। इस प्रकार गुमराह बने समाज की रक्षा की जा सकती है।

(2) किसी भी देश या काल के लिए जवान तथा शिक्षक दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। किसी एक के बिना समाज सुरक्षित नहीं रह सकता। दोनों ही समाज के रक्षक हैं, किन्तु कार्यों में भिन्नता दिखाई पड़ती है। एक शत्रु से रक्षा करता है तो दूसरा उसे (देश को) समृद्ध बनाता है।

फिर भी शिक्षक का उत्तरदायित्व जवान से कहीं बढ़कर है। भावी नागरिक निर्माण करने की जिम्मेदारी शिक्षक के ऊपर है। वह उसके शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक विकास का जनक है, जिस पर व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र निर्भर है। शिक्षक के ही द्वारा कोई योग्य सैनिक बन सकता है।

आज शिक्षक ने सैनिक धाराओं में क्रांति पैदा कर दी है। हमारे अहिंसक आंदोलन ने दुनिया को दिखा दिया है कि शिक्षक सैनिक से श्रेष्ठ है। इसे बनावटी-शस्त्रों की जरूरत नहीं है। इसका आत्मिक बल सब शस्त्रों से बड़ा है।

अगर आनेवाली दुनिया इसका अनुसरण करे तो शस्त्रीकरण का नामोनिशान भू-पृष्ठ से उठ जाएगा। नैतिक शक्ति का बोल-बाला होगा, सारी दुनिया में एकात्मता की लहर फैलेगी और तब ज्ञान-विज्ञान का निर्माण विकास के लिए होगा, न कि विनाश के लिए।

(3) समाजसुधार आंदोलन को निर्भीक संन्यासी स्वामी श्रद्धानंद से नई दिशा मिली। हरिजन समस्या के समाधान में कई स्थानों पर संघर्ष का भी सामना करना पड़ा। गुरुकुल काँगड़ी के छात्रवासों और भोजनालयों में बिना किसी भेदभाव के हर जाति के विद्यार्थी रहते और खाते-पीते थे।

स्वामी जी का कहना था – मनों से छुआछूत की भावना मिटाने में आवासीय शिक्षण संस्थाओं का अच्छा योगदान हो सकता है। चौबीसों घंटे एक साथ मिलकर जब रहेंगे, खेलेंगे, कूदेंगे और पढ़ेंगे, लिखेंगे तो कहाँ तक छूत-अछूत की दीवार खड़ी रह पाएगी।

आजादी के बाद भी यदि इसी रास्ते को पकड़ा गया होता तो मंजिल बहुत पहले तय हो जाती। आवासीय पद्धति पर आश्रित ऐसे गुरुकुल उन्होंने हरियाणा में झज्जर, इंद्रप्रस्थ और कुरूक्षेत्र, गुजरात में सोनगढ़ और सूपा में भी खोले। देहरादून का कन्या गुरुकुल भी उसी श्रृंखला की कड़ी है।

(4) यश और कीर्ति पैतृक संपत्ति नहीं है। जिसका सुख-भोग संतान कर सके। वास्तविक सम्मान और यश धन के द्वारा भी प्राप्त नहीं हो सकता। ये वे पदार्थ है जो घोर परिश्रम और स्वावलंबन द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। ईश्वर का वरद हस्त भी उसी के शीश पर है जो स्वत: अपनी सहायता करता है।

यदि तुम अपना जीवन धन्य बनाना चाहते हो तो खड़े हो जाओ अपने पैरों पर और संसार में एक बार शक्ति से अपने कार्यो से सुख और शांति की धारा प्रवाहित कर दो। भाग्य की भाषा पढ़ने के फेरे में जो भी डूबा वह कभी भी ऊपर नहीं आ सकता। अत: यह निश्चित है कि तुम ही अपने भाग्य विधाता हो और जीवन निर्माण करने का संपूर्ण अधिकार भी तुम ही को है।

(5) संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है। कुछ भी असम्भव नहीं है। असम्भव, असाध्य, कठिन आदि शब्द कायरों के लिए हैं।

नेपोलियन के लिए ये शब्द उसके कोष में नहीं थे। साहसी पतले बापू ने विश्व को चकित कर दिया। क्या बापू शरीर से शक्तिशाली थे? नहीं। वह तो पतली-सी एक लंगोटी पहने लकड़ी के सहारे चलते थे, परंतु विचार सशक्त थे, भावनाएँ शक्तिशाली थीं, उनके साहस को देखकर करोड़ो भारतीय उनके पीछे थे। ब्रिटिश साम्राज्य उनसे काँप गया। अहिंसा के सहारे बिना रक्त-पात के उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराया। यह विश्व का एक अद्वितीय उदाहरण है।

जब महात्मा गांधीजी ने अहिंसा का नारा लगाया तो लोग हँसते थे, कहते थे अहिंसा से कहीं ब्रिटिश साम्राज्य से टक्कर ली जा सकती है? परंतु वे डटे रहे, साहस नहीं छोड़ा, अंत में अहिंसा की ही विजय हुई। कहते हैं, अकेला चना क्या भाड़ फोड़ सकता है? हाँ, यदि उसमें साहस हो तो! साहसहीन के लिए सब कुछ असम्भव है। उससे अगर कहा जाए कि भाई जरा वह काम कर देना; तो वह तुरंत कहेगा, अरे! इतनी दूर!

पैदल, एक दिन में! नहीं भाई, मुझसे नहीं हो सकेगा, किसी और से करा लो। भला वह इस काम को कैसे करेगा? करने वाला दूरी और पैदल नहीं देखता! उसके मार्ग में चाहे पर्वत आकर खड़े हो जाएँ, आँधी आए या तूफान, उसको उनसे क्या वास्ता? उसको तो अपने लक्ष्य तक पहुँचना है, उसे कोई नहीं रोक सकता है। वह अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँच जाएगा। साहसी पुरुष दिन-रात नहीं देखा करते, आँधी तूफान, नदी-नाले, पहाड़-समुद्र नहीं देखा करते; वे तो केवल एक ही चीज देखा करते हैं कि उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है।